Surah Yaseen: In Hindi, Arabic, Roman English with Tarjuma Download PDF. सूरह यासीन कुरान मजीद की 36वीं सूरह है और इसे “क़ल्ब अल-क़ुरान” यानी “कुरान का दिल” कहा जाता है। यह सूरह मक्का में नाज़िल हुई और इसमें कुल 83 आयतें हैं। इस सूरह का मुख्य उद्देश्य अल्लाह की एकता, रसूलों की सच्चाई, क़ियामत के दिन की हक़ीक़त और इंसान के आमाल (कर्मों) का हिसाब है।
सूरह यासीन की शुरूआत दो हर्फ़े-मुक़त्ता’आत, “या सीं” से होती है, जो कुरान की अलौकिक और रहस्यमयी भाषा का हिस्सा हैं। इसके बाद अल्लाह तआला ने रसूल अल्लाह (ﷺ) की नबुव्वत और कुरान के मार्गदर्शन को सत्य साबित करने के लिए तर्क दिए हैं। इसमें बीते हुए क़ौमों के हालात का भी ज़िक्र है जो अल्लाह के आदेशों का पालन न करने की वजह से तबाह हुईं। इसके अलावा, इसमें क़ियामत के दिन की घटनाओं, हिसाब-किताब, और जन्नत व जहन्नम की हकीक़तों का भी वर्णन किया गया है।
Surah Yasin(Yasin Sharif) in Hindi with Tarjuma
बिस्मिल्ला–हिर्रहमा–निर्रहीम
(शुरू अल्लाह के नाम से जो बहुत बड़ा मेहरबान व निहायत रहम वाला है।)
(1) यासीन
(यासीन)
(2) वल कुर आनिल हकीम
(इस पुरअज़ हिकमत कु़रान की क़सम)
(3) इन्नका लमिनल मुरसलीन
(ऐ रसूल) तुम बिलाशक यक़ीनी पैग़म्बरों में से हो)
(4) अला सिरातिम मुस्तकीम
(और दीन के बिल्कुल) सीधे रास्ते पर (साबित क़दम) हो)
(5) तनजीलल अजीज़िर रहीम
(जो बड़े मेहरबान (और) ग़ालिब (खु़दा) का नाजि़ल किया हुआ (है)
(6) लितुन ज़िरा कौमम मा उनज़िरा आबाउहुम फहुम गाफिलून
(ताकि तुम उन लोगों को (अज़ाबे खु़दा से) डराओ जिनके बाप दादा (तुमसे पहले किसी पैग़म्बर से) डराए नहीं गए)
(7) लकद हक कल कौलु अला अकसरिहिम फहुम ला युअ’मिनून
(तो वह दीन से बिल्कुल बेख़बर हैं उन में अक्सर तो (अज़ाब की) बातें यक़ीनन बिल्कुल ठीक पूरी उतरे ये लोग तो ईमान लाएँगे नहीं)
(8) इन्ना जअल्ना फी अअ’ना किहिम अगलालन फहिया इलल अजक़ानि फहुम मुक़महून
(हमने उनकी गर्दनों में (भारी-भारी लोहे के) तौक़ डाल दिए हैं और ठुड्डियों तक पहुँचे हुए हैं कि वह गर्दनें उठाए हुए हैं (सर झुका नहीं सकते)
(9) व जअल्ना मिम बैनि ऐदी हिम सद्दव वमिन खलफिहिम सद्दन फअग शैनाहुम फहुम ला युबसिरून
(हमने एक दीवार उनके आगे बना दी है और एक दीवार उनके पीछे फिर ऊपर से उनको ढाँक दिया है तो वह कुछ देख नहीं सकते)
(10) वसवाउन अलैहिम अअनजर तहुम अम लम तुनजिरहुम ला युअ’मिनून
(और (ऐ रसूल) उनके लिए बराबर है ख़्वाह तुम उन्हें डराओ या न डराओ ये (कभी) ईमान लाने वाले नहीं हैं)
(11) इन्नमा तुन्ज़िरू मनित तब अज़ ज़िकरा व खशियर रहमान बिल्गैब फबश्शिर हु बिमग फिरतिव व अजरिन करीम
(तुम तो बस उसी शख़्स को डरा सकते हो जो नसीहत माने और बेदेखे भाले खु़दा का ख़ौफ़ रखे तो तुम उसको (गुनाहों की) माफी और एक बाइज़्ज़त (व आबरू) अज्र की खु़शख़बरी दे दो )
(12) इन्ना नहनु नुहयिल मौता वनकतुबु मा क़द्दमु व आसारहुम वकुल्ला शयइन अहसैनाहु फी इमामिम मुबीन
(हम ही यक़ीन्न मुर्दों को जि़न्दा करते हैं और जो कुछ लोग पहले कर चुके हैं (उनको) और उनकी (अच्छी या बुरी बाक़ी माँदा) निशानियों को लिखते जाते हैं और हमने हर चीज़ का एक सरीह व रौशन पेशवा में घेर दिया है )
(13) वज़ रिब लहुम मसलन असहाबल करयह इज़ जा अहल मुरसलुन
(और (ऐ रसूल) तुम (इनसे) मिसाल के तौर पर एक गाँव (अता किया) वालों का कि़स्सा बयान करो जब वहाँ (हमारे) पैग़म्बर आए)
(14) इज़ अरसलना इलयहिमुस नैनि फकज जबूहुमा फ अज़ ज़ज्ना बिसा लिसिन फकालू इन्ना इलैकुम मुरसलुन
(इस तरह कि जब हमने उनके पास दो (पैग़म्बर योहना और यूनुस) भेजे तो उन लोगों ने दोनों को झुठलाया जब हमने एक तीसरे (पैग़म्बर शमऊन) से (उन दोनों को) मद्द दी तो इन तीनों ने कहा कि हम तुम्हारे पास खु़दा के भेजे हुए (आए) हैं)
(15) कालू मा अन्तुम इल्ला बशरुम मिसलूना वमा अनजलर रहमानु मिन शय इन इन अन्तुम इल्ला तकज़िबुन
(वह लोग कहने लगे कि तुम लोग भी तो बस हमारे ही जैसे आदमी हो और खु़दा ने कुछ नाजि़ल (वाजि़ल) नहीं किया है तुम सब के सब बस बिल्कुल झूठे हो)
(16) क़ालू रब्बुना यअ’लमु इन्ना इलैकुम लमुरसलून
(तब उन पैग़म्बरों ने कहा हमारा परवरदिगार जानता है कि हम यक़ीन्न उसी के भेजे हुए (आए) हैं और (तुम मानो या न मानो)
(17) वमा अलैना इल्लल बलागुल मुबीन
(हम पर तो बस खुल्लम खुल्ला एहकामे खु़दा का पहुँचा देना फज्र है)
(18) कालू इन्ना ततैयरना बिकुम लइल लम तनतहू लनरजु मन्नकूम वला यमस सन्नकुम मिन्ना अज़ाबुन अलीम
(वह बोले हमने तुम लोगों को बहुत नहस क़दम पाया कि (तुम्हारे आते ही क़हत में मुबतेला हुए) तो अगर तुम (अपनी बातों से) बाज़ न आओगे तो हम लोग तुम्हें ज़रूर संगसार कर देगें और तुमको यक़ीनी हमारा दर्दनाक अज़ाब पहुँचेगा)
(19) कालू ताइरुकुम म अकुम अइन ज़ुक्किरतुम बल अन्तुम क़ौमूम मुस रिफून
(पैग़म्बरों ने कहा कि तुम्हारी बद शुगूनी (तुम्हारी करनी से) तुम्हारे साथ है क्या जब नसीहत की जाती है (तो तुम उसे बदफ़ाली कहते हो नहीं) बल्कि तुम खु़द (अपनी) हद से बढ़ गए हो)
(20) व जा अमिन अक्सल मदीनति रजुलुय यसआ काला या कौमित त्तबिउल मुरसलीन
(और (इतने में) शहर के उस सिरे से एक शख़्स (हबीब नज्जार) दौड़ता हुआ आया और कहने लगा कि ऐ मेरी क़ौम (इन) पैग़म्बरों का कहना मानो)
(21) इत तबिऊ मल ला यस अलुकुम अजरौ वहुम मुहतदून
(ऐसे लोगों का (ज़रूर) कहना मानो जो तुमसे (तबलीख़े रिसालत की) कुछ मज़दूरी नहीं माँगते और वह लोग हिदायत याफ्ता भी हैं)
(22) वमालिया ला अअ’बुदुल लज़ी फतरनी व इलैहि तुरजऊन
(और मुझे क्या (ख़ब्त) हुआ है कि जिसने मुझे पैदा किया है उसकी इबादत न करूँ हालाँकि तुम सब के बस (आखि़र) उसी की तरफ लौटकर जाओगे)
(23) अ अत्तखिज़ु मिन दुनिही आलिहतन इय युरिदनिर रहमानु बिजुर रिल ला तुगनि अन्नी शफ़ा अतुहुम शय अव वला यूनकिजून
(क्या मैं उसे छोड़कर दूसरों को माबूद बना लूँ अगर खु़दा मुझे कोई तकलीफ पहुँचाना चाहे तो न उनकी सिफारिश ही मेरे कुछ काम आएगी और न ये लोग मुझे (इस मुसीबत से) छुड़ा ही सकेंगें)
(24) इन्नी इज़ल लफी ज़लालिम मुबीन
(अगर ऐसा करूँ) तो उस वक़्त मैं यक़ीनी सरीही गुमराही में हूँ)
(25) इन्नी आमन्तु बिरब बिकुम फसमऊन
(मैं तो तुम्हारे परवरदिगार पर ईमान ला चुका हूँ मेरी बात सुनो और मानो ;मगर उन लोगों ने उसे संगसार कर डाला)
(26) कीलद खुलिल जन्नह काल यालैत क़ौमिय यअ’लमून
(तब उसे खु़दा का हुक्म हुआ कि बेहिश्त में जा (उस वक़्त भी उसको क़ौम का ख़्याल आया तो कहा
(27) बिमा गफरली रब्बी व जअलनी मिनल मुकरमीन
(मेरे परवरदिगार ने जो मुझे बख़्श दिया और मुझे बुज़ुर्ग लोगों में शामिल कर दिया काश इसको मेरी क़ौम के लोग जान लेते और ईमान लाते)
(28) वमा अन्ज़लना अला क़ौमिही मिन बअ’दिही मिन जुन्दिम मिनस समाइ वमा कुन्ना मुनजलीन
(और हमने उसके मरने के बाद उसकी क़ौम पर उनकी तबाही के लिए न तो आसमान से कोई लशकर उतारा और न हम कभी इतनी सी बात के वास्ते लशकर उतारने वाले थे )
(29) इन कानत इल्ला सैहतौ वाहिदतन फइज़ा हुम् खामिदून
(वह तो सिर्फ एक चिंघाड थी (जो कर दी गयी बस) फिर तो वह फौरन चिराग़े सहरी की तरह बुझ के रह गए)
(30) या हसरतन अलल इबाद मा यअ’तीहिम मिर रसूलिन इल्ला कानू बिही यस तहज़िउन
(हाए अफसोस बन्दों के हाल पर कि कभी उनके पास कोई रसूल नहीं आया मगर उन लोगों ने उसके साथ मसख़रापन ज़रूर किया)
(31) अलम यरौ कम अहलकना क़ब्लहुम मिनल कुरूनि अन्नहुम इलैहिम ला यर जिउन
(क्या उन लोगों ने इतना भी ग़ौर नहीं किया कि हमने उनसे पहले कितनी उम्मतों को हलाक कर डाला और वह लोग उनके पास हरगिज़ पलट कर नहीं आ सकते)
(32) वइन कुल्लुल लम्मा जमीउल लदैना मुह्ज़रून
(हाँ) अलबत्ता सब के सब इकट्ठा हो कर हमारी बारगाह में हाजि़र किए जाएँगे)
(33) व आयतुल लहुमूल अरज़ुल मैतह अह ययनाहा व अखरजना मिन्हा हब्बन फमिनहु यअ कुलून
(और उनके (समझने) के लिए मेरी कु़दरत की एक निशानी मुर्दा (परती) ज़मीन है कि हमने उसको (पानी से) जि़न्दा कर दिया और हम ही ने उससे दाना निकाला तो उसे ये लोग खाया करते हैं)
(34) व जअलना फीहा जन्नातिम मिन नखीलिव व अअ’नाबिव व फज्जरना फीहा मिनल उयून
(और हम ही ने ज़मीन में छुहारों और अँगूरों के बाग़ लगाए और हमही ने उसमें पानी के चशमें जारी किए )
(35) लियअ’ कुलु मिन समरिही वमा अमिलत हु अयदीहिम अफला यशकुरून
(ताकि लोग उनके फल खाएँ और कुछ उनके हाथों ने उसे नहीं बनाया (बल्कि खु़दा ने) तो क्या ये लोग (इस पर भी) शुक्र नहीं करते)
(36) सुब्हानल लज़ी ख़लक़ल अज़वाज कुल्लहा मिम मा तुमबितुल अरज़ू वमिन अनफुसिहिम वमिम मा ला यअलमून
(वह (हर ऐब से) पाक साफ है जिसने ज़मीन से उगने वाली चीज़ों और खु़द उन लोगों के और उन चीज़ों के जिनकी उन्हें ख़बर नहीं सबके जोड़े पैदा किए)
(37) व आयतुल लहुमूल लैल नसलखु मिन्हुन नहारा फइज़ा हुम् मुजलिमून
(और मेरी क़ुदरत की एक निशानी रात है जिससे हम दिन को खींच कर निकाल लेते (जाएल कर देते) हैं तो उस वक़्त ये लोग अँधेरे में रह जाते हैं)
(38) वश शमसु तजरि लिमुस्त कररिल लहा ज़ालिका तक़्दी रूल अज़ीज़िल अलीम
(और (एक निशानी) आफताब है जो अपने एक ठिकाने पर चल रहा है ये (सबसे) ग़ालिब वाकि़फ (खु़दा) का (वाधा हुआ) अन्दाज़ा है)
(39) वल कमर कद्दरनाहु मनाज़िला हत्ता आद कल उरजुनिल क़दीम
(और हमने चाँद के लिए मंजि़लें मुक़र्रर कर दीं हैं यहाँ तक कि हिर फिर के (आखि़र माह में) खजूर की पुरानी टहनी का सा (पतला टेढ़ा) हो जाता है)
(40) लश शम्सु यमबगी लहा अन तुद रिकल कमरा वलल लैलु साबिकुन नहार वकुल्लुन फी फलकिय यसबहून
(न तो आफताब ही से ये बन पड़ता है कि वह माहताब को जा ले और न रात ही दिन से आगे बढ़ सकती है (चाँद, सूरज, सितारे) हर एक अपने-अपने आसमान (मदार) में चक्कर लगा रहें हैं)
(41) व आयतुल लहुम अन्ना हमलना ज़ुररिय यतहूम फिल फुल्किल मशहून
(और उनके लिए (मेरी कु़दरत) की एक निशानी ये है कि उनके बुज़ुर्गों को (नूह की) भरी हुयी कश्ती में सवार किया)
(42) व खलकना लहुम मिम मिस्लिही मा यरकबून
(और उस कशती के मिसल उन लोगों के वास्ते भी वह चीज़े (कश्तियाँ) जहाज़ पैदा कर दी)
(43) व इन नशअ नुगरिक हुम फला सरीखा लहुम वाला हुम युन्क़जून
(जिन पर ये लोग सवार हुआ करते हैं और अगर हम चाहें तो उन सब लोगों को डुबा मारें फिर न कोई उन का फरियाद रस होगा और न वह लोग छुटकारा ही पा सकते हैं)
(44) इल्ला रहमतम मिन्ना व मताअन इलाहीन
(मगर हमारी मेहरबानी से और चूँकि एक (ख़ास) वक़्त तक (उनको) चैन करने देना (मंज़ूर) है)
(45) व इजा कीला लहुमुत तकू मा बैना ऐदीकुम वमा खल्फकुम लअल्लकुम तुरहमून
(और जब उन कुफ़्फ़ार से कहा जाता है कि इस (अज़ाब से) बचो (हर वक़्त तुम्हारे साथ-साथ) तुम्हारे सामने और तुम्हारे पीछे (मौजूद) है ताकि तुम पर रहम किया जाए)
(46) वमा तअ’तीहिम मिन आयतिम मिन आयाति रब्बिहिम इल्ला कानू अन्हा मुअ रिजीन
(तो परवाह नहीं करते) और उनकी हालत ये है कि जब उनके परवरदिगार की निशानियों में से कोई निशानी उनके पास आयी तो ये लोग मुँह मोड़े बग़ैर कभी नहीं रहे)
(47) व इज़ा कीला लहुम अन्फिकू मिम्मा रजका कुमुल लाहु क़ालल लज़ीना कफरू लिल लज़ीना आमनू अनुत इमू मल लौ यशाऊल लाहू अत अमह इन अन्तुम इल्ला फ़ी ज़लालिम मुबीन
(और जब उन (कुफ़्फ़ार) से कहा जाता है कि (माले दुनिया से) जो खु़दा ने तुम्हें दिया है उसमें से कुछ (खु़दा की राह में भी) ख़र्च करो तो (ये) कुफ़्फ़ार ईमानवालों से कहते हैं कि भला हम उस शख़्स को खिलाएँ जिसे (तुम्हारे ख़्याल के मुवाफि़क़) खु़दा चाहता तो उसको खु़द खिलाता कि तुम लोग बस सरीही गुमराही में (पड़े हुए) हो)
(48) व यकूलूना मता हाज़ल व’अदू इन कुनतुम सादिक़ीन
(और कहते हैं कि (भला) अगर तुम लोग (अपने दावे में सच्चे हो) तो आखि़र ये (क़यामत का) वायदा कब पूरा होगा)
(49) मा यन ज़ुरूना इल्ला सैहतव व़ाहिदतन तअ खुज़ुहुम वहुम यखिस सिमून
(ऐ रसूल) ये लोग एक सख़्त चिंघाड़ (सूर) के मुनतजि़र हैं जो उन्हें (उस वक़्त) ले डालेगी)
(50) फला यस्ता तीऊना तौ सियतव वला इला अहलिहिम यरजिऊन
(जब ये लोग बाहम झगड़ रहे होगें फिर न तो ये लोग वसीयत ही करने पायेंगे और न अपने लड़के बालों ही की तरफ लौट कर जा सकेगें)
(51) व नुफ़िखा फिस सूरि फ़इज़ा हुम मिनल अज्दासि इला रब्बिहिम यन्सिलून
(और फिर (जब दोबारा) सूर फूँका जाएगा तो उसी दम ये सब लोग (अपनी-अपनी) क़ब्रों से (निकल-निकल के) अपने परवरदिगार की बारगाह की तरफ चल खड़े होगे)
(52) कालू या वय्लना मम ब असना मिम मरक़दिना हाज़ा मा व अदर रहमानु व सदकल मुरसलून
(और (हैरान होकर) कहेगें हाए अफसोस हम तो पहले सो रहे थे हमें ख़्वाबगाह से किसने उठाया (जवाब आएगा) कि ये वही (क़यामत का) दिन है जिसका खु़दा ने (भी) वायदा किया था)
(53)इन कानत इल्ला सयहतव वहिदतन फ़ इज़ा हुम जमीउल लदैना मुहज़रून
(और पैग़म्बरों ने भी सच कहा था (क़यामत तो) बस एक सख़्त चिंघाड़ होगी फिर एका एकी ये लोग सब के सब हमारे हुजू़र में हाजि़र किए जाएँगे)
(54) फल यौम ला तुज्लमु नफ्सून शय अव वला तुज्ज़व्ना इल्ला बिमा कुंतुम तअ’लमून
(फिर आज (क़यामत के दिन) किसी शख़्स पर कुछ भी ज़ुल्म न होगा और तुम लोगों को तो उसी का बदला दिया जाएगा जो तुम लोग (दुनिया में) किया करते थे)
(55) इन्न अस हाबल जन्न्तिल यौमा फ़ी शुगुलिन फाकिहून
(बेहश्त के रहने वाले आज (रोजे़ क़यामत) एक न एक मशग़ले में जी बहला रहे हैं)
(56) हुम व अज्वा जुहूम फ़ी ज़िलालिन अलल अराइकि मुत्तकिऊन
(वह अपनी बीवियों के साथ (ठन्डी) छाँव में तकिया लगाए तख़्तों पर (चैन से) बैठे हुए हैं)
(57) लहुम फ़ीहा फाकिहतुव वलहुम मा यद् दऊन
(बहिश्त में उनके लिए (ताज़ा) मेवे (तैयार) हैं और जो वह चाहें उनके लिए (हाजि़र) है)
(58) सलामुन कौलम मिर रब्बिर रहीम
(मेहरबान परवरदिगार की तरफ से सलाम का पैग़ाम आएगा)
(59) वम ताज़ुल यौमा अय्युहल मुजरिमून
(और (एक आवाज़ आएगी कि) ऐ गुनाहगारों तुम लोग (इनसे) अलग हो जाओ )
(60) अलम अअ’हद इलैकुम या बनी आदम अल्ला तअ’बुदुश शैतान इन्नहू लकुम अदुववुम मुबीन
(ऐ आदम की औलाद क्या मैंने तुम्हारे पास ये हुक्म नहीं भेजा था कि (ख़बरदार) शैतान की परसतिश न करना वह यक़ीनी तुम्हारा खुल्लम खुल्ला दुश्मन है)
(61) व अनिअ बुदूनी हज़ा सिरातुम मुस्तक़ीम
(और ये कि (देखो) सिर्फ मेरी इबादत करना यही (नजात की) सीधी राह है)
(62) व लक़द अज़ल्ला मिन्कुम जिबिल्लन कसीरा अफलम तकूनू तअकिलून
(और (बावजूद इसके) उसने तुममें से बहुतेरों को गुमराह कर छोड़ा तो क्या तुम (इतना भी) नहीं समझते थे)
(63) हाज़िही जहन्नमुल लती कुन्तुम तूअदून
(ये वही जहन्नुम है जिसका तुमसे वायदा किया गया था)
(64) इस्लौहल यौमा बिमा कुन्तुम तक्फुरून
(तो अब चूँकि तुम कुफ्र करते थे इस वजह से आज इसमें (चुपके से) चले जाओ)
(65) अल यौमा नाख्तिमु अल अफ्वा हिहिम व तुकल लिमुना अयदीहिम व तशहदू अरजु लुहुम बिमा कानू यक्सिबून
(आज हम उनके मुँह पर मुहर लगा देगें और (जो) कारसतानियाँ ये लोग दुनिया में कर रहे थे खु़द उनके हाथ हमको बता देगें और उनके पाँव गवाही देगें)
(66) व लौ नशाउ लता मसना अला अअ’युनिहिम फ़स तबकुस सिराता फ अन्ना युबसिरून
(और अगर हम चाहें तो उनकी आँखों पर झाडू फेर दें तो ये लोग राह को पड़े चक्कर लगाते ढूँढते फिरें मगर कहाँ देख पाँएगे )
(67) व लौ नशाउ ल मसखना हुम अला मका नतिहिम फमस तताऊ मुजिय यौ वला यर जिऊन
(और अगर हम चाहे तो जहाँ ये हैं (वहीं) उनकी सूरतें बदल (करके) (पत्थर मिट्टी बना) दें फिर न तो उनमें आगे जाने का क़ाबू रहे और न (घर) लौट सकें)
(68) वमन नुअम मिरहु नुनक किसहु फिल खल्क अफला यअ’ किलून
(और हम जिस शख़्स को (बहुत) ज़्यादा उम्र देते हैं तो उसे खि़लक़त में उलट (कर बच्चों की तरह मजबूर कर) देते हैं तो क्या वह लोग समझते नहीं)
(69) वमा अल्लम नाहुश शिअ’रा वमा यम्बगी लह इन हुवा इल्ला जिक रुव वकुर आनुम मुबीन
(और हमने न उस (पैग़म्बर) को शेर की तालीम दी है और न शायरी उसकी शान के लायक़ है ये (किताब) तो बस (निरी) नसीहत और साफ-साफ कु़रान है)
(70) लियुन जिरा मन काना हय्यव व यहिक क़ल कौलु अलल काफ़िरीन
(ताकि जो जि़न्दा (दिल आकि़ल) हों उसे (अज़ाब से) डराए और काफि़रों पर (अज़ाब का) क़ौल साबित हो जाए (और हुज्जत बाक़ी न रहे)
(71) अव लम यरव अन्ना खलक्ना लहुम मिम्मा अमिलत अय्दीना अन आमन फहुम लहा मालिकून
(क्या उन लोगों ने इस पर भी ग़ौर नहीं किया कि हमने उनके फायदे के लिए चारपाए उस चीज़ से पैदा किए जिसे हमारी ही क़ुदरत ने बनाया तो ये लोग (ख्वाहमाख्वाह) उनके मालिक बन गए)
(72) व ज़ल लल नाहा लहुम फ मिन्हा रकू बुहुम व मिन्हा यअ’कुलून
(और हम ही ने चार पायों को उनका मुतीय बना दिया तो बाज़ उनकी सवारियां हैं और बाज़ को खाते हैं)
(73) व लहुम फ़ीहा मनाफ़िउ व मशारिबु अफला यश्कुरून
(और चार पायों में उनके (और) बहुत से फायदे हैं और पीने की चीज़ (दूध) तो क्या ये लोग (इस पर भी) शुक्र नहीं करते )
(74) वत तखजू मिन दूनिल लाहि आलिहतल लअल्लहुम युन्सरून
(और लोगों ने ख़ुदा को छोड़कर (फ़र्ज़ी माबूद बनाए हैं ताकि उन्हें उनसे कुछ मदद मिले हालाँकि वह लोग उनकी किसी तरह मदद कर ही नहीं सकते)
(75) ला यस्ता तीऊना नस रहुम वहुम लहुम जुन्दुम मुह्ज़रून
(और ये कुफ़्फ़ार उन माबूदों के लशकर हैं (और क़यामत में) उन सबकी हाजि़री ली जाएगी)
(76) फला यह्ज़ुन्का क़व्लुहुम इन्ना नअ’लमु मा युसिर रूना वमा युअ’लिनून
(तो (ऐ रसूल) तुम इनकी बातों से आज़ुरदा ख़ातिर (पेरशान) न हो जो कुछ ये लोग छिपा कर करते हैं और जो कुछ खुल्लम खुल्ला करते हैं-हम सबको यक़ीनी जानते हैं)
(77) अव लम यरल इंसानु अन्ना खलक्नाहू मिन नुत्फ़तिन फ़ इज़ा हुवा खासीमुम मुबीन
(क्या आदमी ने इस पर भी ग़ौर नहीं किया कि हम ही ने इसको एक ज़लील नुत्फे़ से पैदा किया फिर वह यकायक (हमारा ही) खुल्लम खुल्ला मुक़ाबिल (बना) है)
(78) व ज़रबा लना मसलव व नसिया खल्कह काला मय युहयिल इजामा व हिय रमीम
(और हमारी निसबत बातें बनाने लगा और अपनी खि़लक़त (की हालत) भूल गया और कहने लगा कि भला जब ये हड्डियाँ (सड़गल कर) ख़ाक हो जाएँगी तो (फिर) कौन (दोबारा) जि़न्दा कर सकता है)
(79) कुल युहयीहल लज़ी अनश अहा अव्वला मर्रह वहुवा बिकुलली खल किन अलीम
(ऐ रसूल) तुम कह दो कि उसको वही जि़न्दा करेगा जिसने उनको (जब ये कुछ न थे) पहली बार जि़न्दा कर (रखा)
(80) अल्लज़ी जअला लकुम मिनश शजरिल अख्ज़रि नारन फ़ इज़ा अन्तुम मिन्हु तूकिदून
(और वह हर तरह की पैदाइश से वाकि़फ है जिसने तुम्हारे वास्ते (मिखऱ् और अफ़ार के) हरे दरख़्त से आग पैदा कर दी फिर तुम उससे (और) आग सुलगा लेते हो)
(81) अवा लैसल लज़ी खलक़स समावाती वल अरज़ा बिक़ादिरिन अला य यख्लुक़ा मिस्लहुम बला वहुवल खल्लाकुल अलीम
(भला) जिस (खु़दा) ने सारे आसमान और ज़मीन पैदा किए क्या वह इस पर क़ाबू नहीं रखता कि उनके मिस्ल (दोबारा) पैदा कर दे हाँ (ज़रूर क़ाबू रखता है) और वह तो पैदा करने वाला वाकि़फ़कार है)
(82) इन्नमा अमरुहू इज़ा अरादा शय अन अय यकूला लहू कुन फयकून
(उसकी शान तो ये है कि जब किसी चीज़ को (पैदा करना) चाहता है तो वह कह देता है कि “हो जा” तो (फौरन) हो जाती है)
(83) फसुब हानल लज़ी बियदिही मलकूतु कुल्ली शय इव व इलैहि तुरज उन
(तो वह ख़ुद (हर नफ़्स से) पाक साफ़ है जिसके क़ब्ज़े कु़दरत में हर चीज़ की हिकमत है और तुम लोग उसी की तरफ लौट कर जाओगे)
Surah Yaseen in Hindi
बिस्मिल्ला–हिर्रहमा–निर्रहीम
(1) यासीन
(2) वल कुर आनिल हकीम
(3) इन्नका लमिनल मुरसलीन
(4) अला सिरातिम मुस्तकीम
(5) तनजीलल अजीज़िर रहीम
(6) लितुन ज़िरा कौमम मा उनज़िरा आबाउहुम फहुम गाफिलून
(7) लकद हक कल कौलु अला अकसरिहिम फहुम ला युअ’मिनून
(8) इन्ना जअल्ना फी अअ’ना किहिम अगलालन फहिया इलल अजक़ानि फहुम मुक़महून
(9) व जअल्ना मिम बैनि ऐदी हिम सद्दव वमिन खलफिहिम सद्दन फअग शैनाहुम फहुम ला युबसिरून
(10) वसवाउन अलैहिम अअनजर तहुम अम लम तुनजिरहुम ला युअ’मिनून
(11) इन्नमा तुन्ज़िरू मनित तब अज़ ज़िकरा व खशियर रहमान बिल्गैब फबश्शिर हु बिमग फिरतिव व अजरिन करीम
(12) इन्ना नहनु नुहयिल मौता वनकतुबु मा क़द्दमु व आसारहुम वकुल्ला शयइन अहसैनाहु फी इमामिम मुबीन
(13) वज़ रिब लहुम मसलन असहाबल करयह इज़ जा अहल मुरसलुन
(14) इज़ अरसलना इलयहिमुस नैनि फकज जबूहुमा फ अज़ ज़ज्ना बिसा लिसिन फकालू इन्ना इलैकुम मुरसलुन
(15) कालू मा अन्तुम इल्ला बशरुम मिसलूना वमा अनजलर रहमानु मिन शय इन इन अन्तुम इल्ला तकज़िबुन
(16) क़ालू रब्बुना यअ’लमु इन्ना इलैकुम लमुरसलून
(17) वमा अलैना इल्लल बलागुल मुबीन
(18) कालू इन्ना ततैयरना बिकुम लइल लम तनतहू लनरजु मन्नकूम वला यमस सन्नकुम मिन्ना अज़ाबुन अलीम
(19) कालू ताइरुकुम म अकुम अइन ज़ुक्किरतुम बल अन्तुम क़ौमूम मुस रिफून
(20) व जा अमिन अक्सल मदीनति रजुलुय यसआ काला या कौमित त्तबिउल मुरसलीन
(21) इत तबिऊ मल ला यस अलुकुम अजरौ वहुम मुहतदून
(22) वमालिया ला अअ’बुदुल लज़ी फतरनी व इलैहि तुरजऊन
(23) अ अत्तखिज़ु मिन दुनिही आलिहतन इय युरिदनिर रहमानु बिजुर रिल ला तुगनि अन्नी शफ़ा अतुहुम शय अव वला यूनकिजून
(24) इन्नी इज़ल लफी ज़लालिम मुबीन
(25) इन्नी आमन्तु बिरब बिकुम फसमऊन
(26) कीलद खुलिल जन्नह काल यालैत क़ौमिय यअ’लमून
(27) बिमा गफरली रब्बी व जअलनी मिनल मुकरमीन
(28) वमा अन्ज़लना अला क़ौमिही मिन बअ’दिही मिन जुन्दिम मिनस समाइ वमा कुन्ना मुनजलीन
(29) इन कानत इल्ला सैहतौ वाहिदतन फइज़ा हुम् खामिदून
(30) या हसरतन अलल इबाद मा यअ’तीहिम मिर रसूलिन इल्ला कानू बिही यस तहज़िउन
(31) अलम यरौ कम अहलकना क़ब्लहुम मिनल कुरूनि अन्नहुम इलैहिम ला यर जिउन
(32) वइन कुल्लुल लम्मा जमीउल लदैना मुह्ज़रून
(33) व आयतुल लहुमूल अरज़ुल मैतह अह ययनाहा व अखरजना मिन्हा हब्बन फमिनहु यअ कुलून
(34) व जअलना फीहा जन्नातिम मिन नखीलिव व अअ’नाबिव व फज्जरना फीहा मिनल उयून
(35) लियअ’ कुलु मिन समरिही वमा अमिलत हु अयदीहिम अफला यशकुरून
(36) सुब्हानल लज़ी ख़लक़ल अज़वाज कुल्लहा मिम मा तुमबितुल अरज़ू वमिन अनफुसिहिम वमिम मा ला यअलमून
(37) व आयतुल लहुमूल लैल नसलखु मिन्हुन नहारा फइज़ा हुम् मुजलिमून
(38) वश शमसु तजरि लिमुस्त कररिल लहा ज़ालिका तक़्दी रूल अज़ीज़िल अलीम
(39) वल कमर कद्दरनाहु मनाज़िला हत्ता आद कल उरजुनिल क़दीम
(40) लश शम्सु यमबगी लहा अन तुद रिकल कमरा वलल लैलु साबिकुन नहार वकुल्लुन फी फलकिय यसबहून
(41) व आयतुल लहुम अन्ना हमलना ज़ुररिय यतहूम फिल फुल्किल मशहून
(42) व खलकना लहुम मिम मिस्लिही मा यरकबून
(43) व इन नशअ नुगरिक हुम फला सरीखा लहुम वाला हुम युन्क़जून
(44) इल्ला रहमतम मिन्ना व मताअन इलाहीन
(45) व इजा कीला लहुमुत तकू मा बैना ऐदीकुम वमा खल्फकुम लअल्लकुम तुरहमून
(46) वमा तअ’तीहिम मिन आयतिम मिन आयाति रब्बिहिम इल्ला कानू अन्हा मुअ रिजीन
(47) व इज़ा कीला लहुम अन्फिकू मिम्मा रजका कुमुल लाहु क़ालल लज़ीना कफरू लिल लज़ीना आमनू अनुत इमू मल लौ यशाऊल लाहू अत अमह इन अन्तुम इल्ला फ़ी ज़लालिम मुबीन
(48) व यकूलूना मता हाज़ल व’अदू इन कुनतुम सादिक़ीन
(49) मा यन ज़ुरूना इल्ला सैहतव व़ाहिदतन तअ खुज़ुहुम वहुम यखिस सिमून
(50) फला यस्ता तीऊना तौ सियतव वला इला अहलिहिम यरजिऊन
(51) व नुफ़िखा फिस सूरि फ़इज़ा हुम मिनल अज्दासि इला रब्बिहिम यन्सिलून
(52) कालू या वय्लना मम ब असना मिम मरक़दिना हाज़ा मा व अदर रहमानु व सदकल मुरसलून
(53)इन कानत इल्ला सयहतव वहिदतन फ़ इज़ा हुम जमीउल लदैना मुहज़रून
(54) फल यौम ला तुज्लमु नफ्सून शय अव वला तुज्ज़व्ना इल्ला बिमा कुंतुम तअ’लमून
(55) इन्न अस हाबल जन्न्तिल यौमा फ़ी शुगुलिन फाकिहून
(56) हुम व अज्वा जुहूम फ़ी ज़िलालिन अलल अराइकि मुत्तकिऊन
(57) लहुम फ़ीहा फाकिहतुव वलहुम मा यद् दऊन
(58) सलामुन कौलम मिर रब्बिर रहीम
(59) वम ताज़ुल यौमा अय्युहल मुजरिमून
(60) अलम अअ’हद इलैकुम या बनी आदम अल्ला तअ’बुदुश शैतान इन्नहू लकुम अदुववुम मुबीन
(61) व अनिअ बुदूनी हज़ा सिरातुम मुस्तक़ीम
(62) व लक़द अज़ल्ला मिन्कुम जिबिल्लन कसीरा अफलम तकूनू तअकिलून
(63) हाज़िही जहन्नमुल लती कुन्तुम तूअदून
(64) इस्लौहल यौमा बिमा कुन्तुम तक्फुरून
(65) अल यौमा नाख्तिमु अल अफ्वा हिहिम व तुकल लिमुना अयदीहिम व तशहदू अरजु लुहुम बिमा कानू यक्सिबून
(66) व लौ नशाउ लता मसना अला अअ’युनिहिम फ़स तबकुस सिराता फ अन्ना युबसिरून
(67) व लौ नशाउ ल मसखना हुम अला मका नतिहिम फमस तताऊ मुजिय यौ वला यर जिऊन
(68) वमन नुअम मिरहु नुनक किसहु फिल खल्क अफला यअ’ किलून
(69) वमा अल्लम नाहुश शिअ’रा वमा यम्बगी लह इन हुवा इल्ला जिक रुव वकुर आनुम मुबीन
(70) लियुन जिरा मन काना हय्यव व यहिक क़ल कौलु अलल काफ़िरीन
(71) अव लम यरव अन्ना खलक्ना लहुम मिम्मा अमिलत अय्दीना अन आमन फहुम लहा मालिकून
(72) व ज़ल लल नाहा लहुम फ मिन्हा रकू बुहुम व मिन्हा यअ’कुलून
(73) व लहुम फ़ीहा मनाफ़िउ व मशारिबु अफला यश्कुरून
(74) वत तखजू मिन दूनिल लाहि आलिहतल लअल्लहुम युन्सरून
(75) ला यस्ता तीऊना नस रहुम वहुम लहुम जुन्दुम मुह्ज़रून
(76) फला यह्ज़ुन्का क़व्लुहुम इन्ना नअ’लमु मा युसिर रूना वमा युअ’लिनून
(77) अव लम यरल इंसानु अन्ना खलक्नाहू मिन नुत्फ़तिन फ़ इज़ा हुवा खासीमुम मुबीन
(78) व ज़रबा लना मसलव व नसिया खल्कह काला मय युहयिल इजामा व हिय रमीम
(79) कुल युहयीहल लज़ी अनश अहा अव्वला मर्रह वहुवा बिकुलली खल किन अलीम
(80) अल्लज़ी जअला लकुम मिनश शजरिल अख्ज़रि नारन फ़ इज़ा अन्तुम मिन्हु तूकिदून
(81) अवा लैसल लज़ी खलक़स समावाती वल अरज़ा बिक़ादिरिन अला य यख्लुक़ा मिस्लहुम बला वहुवल खल्लाकुल अलीम
(82) इन्नमा अमरुहू इज़ा अरादा शय अन अय यकूला लहू कुन फयकून
(83) फसुब हानल लज़ी बियदिही मलकूतु कुल्ली शय इव व इलैहि तुरज उन.
Surah Yaseen in Arabic
یٰسٓ(1) وَ الْقُرْاٰنِ الْحَكِیْمِ(2) اِنَّكَ لَمِنَ الْمُرْسَلِیْنَ(3) عَلٰى صِرَاطٍ مُّسْتَقِیْمٍﭤ(4) تَنْزِیْلَ الْعَزِیْزِ الرَّحِیْمِ(5) لِتُنْذِرَ قَوْمًا مَّاۤ اُنْذِرَ اٰبَآؤُهُمْ فَهُمْ غٰفِلُوْنَ(6) لَقَدْ حَقَّ الْقَوْلُ عَلٰۤى اَكْثَرِهِمْ فَهُمْ لَا یُؤْمِنُوْنَ(7) اِنَّا جَعَلْنَا فِیْۤ اَعْنَاقِهِمْ اَغْلٰلًا فَهِیَ اِلَى الْاَذْقَانِ فَهُمْ مُّقْمَحُوْنَ(8) وَ جَعَلْنَا مِنْۢ بَیْنِ اَیْدِیْهِمْ سَدًّا وَّ مِنْ خَلْفِهِمْ سَدًّا فَاَغْشَیْنٰهُمْ فَهُمْ لَا یُبْصِرُوْنَ(9) وَ سَوَآءٌ عَلَیْهِمْ ءَاَنْذَرْتَهُمْ اَمْ لَمْ تُنْذِرْهُمْ لَا یُؤْمِنُوْنَ(10) اِنَّمَا تُنْذِرُ مَنِ اتَّبَعَ الذِّكْرَ وَ خَشِیَ الرَّحْمٰنَ بِالْغَیْبِۚ-فَبَشِّرْهُ بِمَغْفِرَةٍ وَّ اَجْرٍ كَرِیْمٍ(11) اِنَّا نَحْنُ نُحْیِ الْمَوْتٰى وَ نَكْتُبُ مَا قَدَّمُوْا وَ اٰثَارَهُمْۣؕ-وَ كُلَّ شَیْءٍ اَحْصَیْنٰهُ فِیْۤ اِمَامٍ مُّبِیْنٍ(12) وَ اضْرِبْ لَهُمْ مَّثَلًا اَصْحٰبَ الْقَرْیَةِۘ-اِذْ جَآءَهَا الْمُرْسَلُوْنَ(13) اِذْ اَرْسَلْنَاۤ اِلَیْهِمُ اثْنَیْنِ فَكَذَّبُوْهُمَا فَعَزَّزْنَا بِثَالِثٍ فَقَالُوْۤا اِنَّاۤ اِلَیْكُمْ مُّرْسَلُوْنَ(14) قَالُوْا مَاۤ اَنْتُمْ اِلَّا بَشَرٌ مِّثْلُنَاۙ-وَ مَاۤ اَنْزَلَ الرَّحْمٰنُ مِنْ شَیْءٍۙ-اِنْ اَنْتُمْ اِلَّا تَكْذِبُوْنَ(15)
قَالُوْا رَبُّنَا یَعْلَمُ اِنَّاۤ اِلَیْكُمْ لَمُرْسَلُوْنَ(16) وَ مَا عَلَیْنَاۤ اِلَّا الْبَلٰغُ الْمُبِیْنُ(17) قَالُوْۤا اِنَّا تَطَیَّرْنَا بِكُمْۚ-لَىٕنْ لَّمْ تَنْتَهُوْا لَنَرْجُمَنَّكُمْ وَ لَیَمَسَّنَّكُمْ مِّنَّا عَذَابٌ اَلِیْمٌ(18) قَالُوْا طَآىٕرُكُمْ مَّعَكُمْؕ-اَىٕنْ ذُكِّرْتُمْؕ-بَلْ اَنْتُمْ قَوْمٌ مُّسْرِفُوْنَ(19) وَ جَآءَ مِنْ اَقْصَا الْمَدِیْنَةِ رَجُلٌ یَّسْعٰى قَالَ یٰقَوْمِ اتَّبِعُوا الْمُرْسَلِیْنَ(20) اتَّبِعُوْا مَنْ لَّا یَسْــٴَـلُكُمْ اَجْرًا وَّ هُمْ مُّهْتَدُوْنَ(21) وَ مَا لِیَ لَاۤ اَعْبُدُ الَّذِیْ فَطَرَنِیْ وَ اِلَیْهِ تُرْجَعُوْنَ(22) ءَاَتَّخِذُ مِنْ دُوْنِهٖۤ اٰلِهَةً اِنْ یُّرِدْنِ الرَّحْمٰنُ بِضُرٍّ لَّا تُغْنِ عَنِّیْ شَفَاعَتُهُمْ شَیْــٴًـا وَّ لَا یُنْقِذُوْنِ(23) اِنِّیْۤ اِذًا لَّفِیْ ضَلٰلٍ مُّبِیْنٍ(24) اِنِّیْۤ اٰمَنْتُ بِرَبِّكُمْ فَاسْمَعُوْنِﭤ(25) قِیْلَ ادْخُلِ الْجَنَّةَؕ-قَالَ یٰلَیْتَ قَوْمِیْ یَعْلَمُوْنَ(26) بِمَا غَفَرَ لِیْ رَبِّیْ وَ جَعَلَنِیْ مِنَ الْمُكْرَمِیْنَ(27) وَ مَاۤ اَنْزَلْنَا عَلٰى قَوْمِهٖ مِنْۢ بَعْدِهٖ مِنْ جُنْدٍ مِّنَ السَّمَآءِ وَ مَا كُنَّا مُنْزِلِیْنَ(28) اِنْ كَانَتْ اِلَّا صَیْحَةً وَّاحِدَةً فَاِذَا هُمْ خٰمِدُوْنَ(29) یٰحَسْرَةً عَلَى الْعِبَادِۣۚ-مَا یَاْتِیْهِمْ مِّنْ رَّسُوْلٍ اِلَّا كَانُوْا بِهٖ یَسْتَهْزِءُوْنَ(30)
اَلَمْ یَرَوْا كَمْ اَهْلَكْنَا قَبْلَهُمْ مِّنَ الْقُرُوْنِ اَنَّهُمْ اِلَیْهِمْ لَا یَرْجِعُوْنَﭤ(31) وَ اِنْ كُلٌّ لَّمَّا جَمِیْعٌ لَّدَیْنَا مُحْضَرُوْنَ(32) وَ اٰیَةٌ لَّهُمُ الْاَرْضُ الْمَیْتَةُ ۚۖ-اَحْیَیْنٰهَا وَ اَخْرَجْنَا مِنْهَا حَبًّا فَمِنْهُ یَاْكُلُوْنَ(33) وَ جَعَلْنَا فِیْهَا جَنّٰتٍ مِّنْ نَّخِیْلٍ وَّ اَعْنَابٍ وَّ فَجَّرْنَا فِیْهَا مِنَ الْعُیُوْنِ(34) لِیَاْكُلُوْا مِنْ ثَمَرِهٖۙ-وَ مَا عَمِلَتْهُ اَیْدِیْهِمْؕ-اَفَلَا یَشْكُرُوْنَ(35) سُبْحٰنَ الَّذِیْ خَلَقَ الْاَزْوَاجَ كُلَّهَا مِمَّا تُنْۢبِتُ الْاَرْضُ وَ مِنْ اَنْفُسِهِمْ وَ مِمَّا لَا یَعْلَمُوْنَ(36) وَ اٰیَةٌ لَّهُمُ الَّیْلُ ۚۖ-نَسْلَخُ مِنْهُ النَّهَارَ فَاِذَا هُمْ مُّظْلِمُوْنَ(37) وَ الشَّمْسُ تَجْرِیْ لِمُسْتَقَرٍّ لَّهَاؕ-ذٰلِكَ تَقْدِیْرُ الْعَزِیْزِ الْعَلِیْمِﭤ(38) وَ الْقَمَرَ قَدَّرْنٰهُ مَنَازِلَ حَتّٰى عَادَ كَالْعُرْجُوْنِ الْقَدِیْمِ(39) لَا الشَّمْسُ یَنْۢبَغِیْ لَهَاۤ اَنْ تُدْرِكَ الْقَمَرَ وَ لَا الَّیْلُ سَابِقُ النَّهَارِؕ-وَ كُلٌّ فِیْ فَلَكٍ یَّسْبَحُوْنَ(40) وَ اٰیَةٌ لَّهُمْ اَنَّا حَمَلْنَا ذُرِّیَّتَهُمْ فِی الْفُلْكِ الْمَشْحُوْنِ(41) وَ خَلَقْنَا لَهُمْ مِّنْ مِّثْلِهٖ مَا یَرْكَبُوْنَ(42) وَ اِنْ نَّشَاْ نُغْرِقْهُمْ فَلَا صَرِیْخَ لَهُمْ وَ لَا هُمْ یُنْقَذُوْنَ(43) اِلَّا رَحْمَةً مِّنَّا وَ مَتَاعًا اِلٰى حِیْنٍ(44) وَ اِذَا قِیْلَ لَهُمُ اتَّقُوْا مَا بَیْنَ اَیْدِیْكُمْ وَ مَا خَلْفَكُمْ لَعَلَّكُمْ تُرْحَمُوْنَ(45)
وَ مَا تَاْتِیْهِمْ مِّنْ اٰیَةٍ مِّنْ اٰیٰتِ رَبِّهِمْ اِلَّا كَانُوْا عَنْهَا مُعْرِضِیْنَ(46) وَ اِذَا قِیْلَ لَهُمْ اَنْفِقُوْا مِمَّا رَزَقَكُمُ اللّٰهُۙ-قَالَ الَّذِیْنَ كَفَرُوْا لِلَّذِیْنَ اٰمَنُوْۤا اَنُطْعِمُ مَنْ لَّوْ یَشَآءُ اللّٰهُ اَطْعَمَهٗۤ ﳓ اِنْ اَنْتُمْ اِلَّا فِیْ ضَلٰلٍ مُّبِیْنٍ(47) وَ یَقُوْلُوْنَ مَتٰى هٰذَا الْوَعْدُ اِنْ كُنْتُمْ صٰدِقِیْنَ(48) مَا یَنْظُرُوْنَ اِلَّا صَیْحَةً وَّاحِدَةً تَاْخُذُهُمْ وَ هُمْ یَخِصِّمُوْنَ(49) فَلَا یَسْتَطِیْعُوْنَ تَوْصِیَةً وَّ لَاۤ اِلٰۤى اَهْلِهِمْ یَرْجِعُوْنَ(50) وَ نُفِخَ فِی الصُّوْرِ فَاِذَا هُمْ مِّنَ الْاَجْدَاثِ اِلٰى رَبِّهِمْ یَنْسِلُوْنَ(51) قَالُوْا یٰوَیْلَنَا مَنْۢ بَعَثَنَا مِنْ مَّرْقَدِنَاﱃ هٰذَا مَا وَعَدَ الرَّحْمٰنُ وَ صَدَقَ الْمُرْسَلُوْنَ(52) اِنْ كَانَتْ اِلَّا صَیْحَةً وَّاحِدَةً فَاِذَا هُمْ جَمِیْعٌ لَّدَیْنَا مُحْضَرُوْنَ(53) فَالْیَوْمَ لَا تُظْلَمُ نَفْسٌ شَیْــٴًـا وَّ لَا تُجْزَوْنَ اِلَّا مَا كُنْتُمْ تَعْمَلُوْنَ(54) اِنَّ اَصْحٰبَ الْجَنَّةِ الْیَوْمَ فِیْ شُغُلٍ فٰكِهُوْنَ(55) هُمْ وَ اَزْوَاجُهُمْ فِیْ ظِلٰلٍ عَلَى الْاَرَآىٕكِ مُتَّكِــٴُـوْنَ (56) لَهُمْ فِیْهَا فَاكِهَةٌ وَّ لَهُمْ مَّا یَدَّعُوْنَ(57) سَلٰمٌ- قَوْلًا مِّنْ رَّبٍّ رَّحِیْمٍ(58) وَ امْتَازُوا الْیَوْمَ اَیُّهَا الْمُجْرِمُوْنَ(59) اَلَمْ اَعْهَدْ اِلَیْكُمْ یٰبَنِیْۤ اٰدَمَ اَنْ لَّا تَعْبُدُوا الشَّیْطٰنَۚ-اِنَّهٗ لَكُمْ عَدُوٌّ مُّبِیْنٌ(60)
وَّ اَنِ اعْبُدُوْنِیْﳳ-هٰذَا صِرَاطٌ مُّسْتَقِیْمٌ(61) وَ لَقَدْ اَضَلَّ مِنْكُمْ جِبِلًّا كَثِیْرًاؕ-اَفَلَمْ تَكُوْنُوْا تَعْقِلُوْنَ(62) هٰذِهٖ جَهَنَّمُ الَّتِیْ كُنْتُمْ تُوْعَدُوْنَ(63) اِصْلَوْهَا الْیَوْمَ بِمَا كُنْتُمْ تَكْفُرُوْنَ(64) اَلْیَوْمَ نَخْتِمُ عَلٰۤى اَفْوَاهِهِمْ وَ تُكَلِّمُنَاۤ اَیْدِیْهِمْ وَ تَشْهَدُ اَرْجُلُهُمْ بِمَا كَانُوْا یَكْسِبُوْنَ(65) وَ لَوْ نَشَآءُ لَطَمَسْنَا عَلٰۤى اَعْیُنِهِمْ فَاسْتَبَقُوا الصِّرَاطَ فَاَنّٰى یُبْصِرُوْنَ(66) وَ لَوْ نَشَآءُ لَمَسَخْنٰهُمْ عَلٰى مَكَانَتِهِمْ فَمَا اسْتَطَاعُوْا مُضِیًّا وَّ لَا یَرْجِعُوْنَ(67) وَ مَنْ نُّعَمِّرْهُ نُنَكِّسْهُ فِی الْخَلْقِؕ-اَفَلَا یَعْقِلُوْنَ(68) وَ مَا عَلَّمْنٰهُ الشِّعْرَ وَ مَا یَنْۢبَغِیْ لَهٗؕ-اِنْ هُوَ اِلَّا ذِكْرٌ وَّ قُرْاٰنٌ مُّبِیْنٌ(69) لِّیُنْذِرَ مَنْ كَانَ حَیًّا وَّ یَحِقَّ الْقَوْلُ عَلَى الْكٰفِرِیْنَ(70) اَوَ لَمْ یَرَوْا اَنَّا خَلَقْنَا لَهُمْ مِّمَّا عَمِلَتْ اَیْدِیْنَاۤ اَنْعَامًا فَهُمْ لَهَا مٰلِكُوْنَ(71) وَ ذَلَّلْنٰهَا لَهُمْ فَمِنْهَا رَكُوْبُهُمْ وَ مِنْهَا یَاْكُلُوْنَ(72) وَ لَهُمْ فِیْهَا مَنَافِعُ وَ مَشَارِبُؕ-اَفَلَا یَشْكُرُوْنَ(73) وَ اتَّخَذُوْا مِنْ دُوْنِ اللّٰهِ اٰلِهَةً لَّعَلَّهُمْ یُنْصَرُوْنَﭤ(74) لَا یَسْتَطِیْعُوْنَ نَصْرَهُمْۙ-وَ هُمْ لَهُمْ جُنْدٌ مُّحْضَرُوْنَ(75) فَلَا یَحْزُنْكَ قَوْلُهُمْۘ-اِنَّا نَعْلَمُ مَا یُسِرُّوْنَ وَ مَا یُعْلِنُوْنَ(76) اَوَ لَمْ یَرَ الْاِنْسَانُ اَنَّا خَلَقْنٰهُ مِنْ نُّطْفَةٍ فَاِذَا هُوَ خَصِیْمٌ مُّبِیْنٌ(77) وَ ضَرَبَ لَنَا مَثَلًا وَّ نَسِیَ خَلْقَهٗؕ-قَالَ مَنْ یُّحْیِ الْعِظَامَ وَ هِیَ رَمِیْمٌ(78) قُلْ یُحْیِیْهَا الَّذِیْۤ اَنْشَاَهَاۤ اَوَّلَ مَرَّةٍؕ-وَ هُوَ بِكُلِّ خَلْقٍ عَلِیْمُﰳ(79) الَّذِیْ جَعَلَ لَكُمْ مِّنَ الشَّجَرِ الْاَخْضَرِ نَارًا فَاِذَاۤ اَنْتُمْ مِّنْهُ تُوْقِدُوْنَ(80) اَوَ لَیْسَ الَّذِیْ خَلَقَ السَّمٰوٰتِ وَ الْاَرْضَ بِقٰدِرٍ عَلٰۤى اَنْ یَّخْلُقَ مِثْلَهُمْﳳ-بَلٰىۗ-وَ هُوَ الْخَلّٰقُ الْعَلِیْمُ(81) اِنَّمَاۤ اَمْرُهٗۤ اِذَاۤ اَرَادَ شَیْــٴًـا اَنْ یَّقُوْلَ لَهٗ كُنْ فَیَكُوْنُ(82) فَسُبْحٰنَ الَّذِیْ بِیَدِهٖ مَلَكُوْتُ كُلِّ شَیْءٍ وَّ اِلَیْهِ تُرْجَعُوْنَ(83)
Surah Yaseen in Roman English
(1) Yaa-Seeen
(2) Wal-Qur-aanil-Hakeem
(3) Innaka laminal mursaleen
(4) ‘Alaa Siraatim Mustaqeem
(5) Tanzeelal ‘Azeezir Raheem
(6) Litunzira qawmam maaa unzira aabaaa’uhum fahum ghaafiloon
(7) Laqad haqqal qawlu ‘alaaa aksarihim fahum laa yu’minoon
(8) Innaa ja’alnaa feee a’naaqihim aghlaalan fahiya ilal azqaani fahum muqmahoon
(9) Wa ja’alnaa min baini aydeehim saddanw-wa min khalfihim saddan fa aghshai naahum fahum laa yubsiroon
(10) Wa sawaaa’un ‘alaihim ‘a-anzartahum am lam tunzirhum laa yu’minoon
(11) Innamaa tunziru manit taba ‘az-Zikra wa khashiyar Rahmaana bilghaib, fabashshirhu bimaghfiratinw-wa ajrin kareem
(12) Innaa Nahnu nuhyil mawtaa wa naktubu maa qaddamoo wa aasaarahum; wa kulla shai’in ahsainaahu feee Imaamim Mubeen
(13) Wadrib lahum masalan Ashaabal Qaryatih; iz jaaa’ahal mursaloon
(14) Iz arsalnaaa ilaihimusnaini fakazzaboohumaa fa’azzaznaa bisaalisin faqaalooo innaaa ilaikum mursaloon
(15) Qaaloo maaa antum illaa basharum mislunaa wa maaa anzalar Rahmaanu min shai’in in antum illaa takziboon
(16) Qaaloo Rabbunaa ya’lamu innaaa ilaikum lamursaloon
(17) Wa maa ‘alainaaa illal balaaghul mubeen
(18) Qaaloo innaa tataiyarnaa bikum la’il-lam tantahoo lanar jumannakum wa la-yamassan nakum minnaa ‘azaabun aleem
(19) Qaaloo taaa’irukum ma’akum; a’in zukkirtum; bal antum qawmum musrifoon
(20) Wa jaaa’a min aqsal madeenati rajuluny yas’aa qaala yaa qawmit tabi’ul mursaleen
(21) Ittabi’oo mal-laa yas’alukum ajranw-wa hum muhtadoon
(22) Wa maa liya laaa a’budul lazee fataranee wa ilaihi turja’oon
(23) ‘A-attakhizu min dooniheee aalihatan iny-yuridnir Rahmaanu bidurril-laa tughni ‘annee shafaa ‘atuhum shai ‘anw-wa laa yunqizoon
(24) Inneee izal-lafee dalaa-lim-mubeen
(25) Inneee aamantu bi Rabbikum fasma’oon
(26) Qeelad khulil Jannnah; qaala yaa laita qawmee ya’lamoon
(27) Bimaa ghafara lee Rabbee wa ja’alanee minal mukrameen (End Juz 22)
(28) Wa maaa anzalnaa ‘alaa qawmihee mim ba’dihee min jundim minas-samaaa’i wa maa kunnaa munzileen
(29) In kaanat illaa saihatanw waahidatan fa-izaa hum khaamidoon
(30) Yaa hasratan ‘alal ‘ibaaad; maa ya’teehim mir Rasoolin illaa kaanoo bihee yastahzi ‘oon
(31) Alam yaraw kam ahlak naa qablahum minal qurooni annahum ilaihim laa yarji’oon
(32) Wa in kullul lammaa jamee’ul-ladainaa muhdaroon
(33) Wa Aayatul lahumul ardul maitatu ahyainaahaa wa akhrajnaa minhaa habban faminhu ya’kuloon
(34) Wa ja’alnaa feehaa jannaatim min nakheelinw wa a’naabinw wa fajjarnaa feeha minal ‘uyoon
(35) Li ya’kuloo min samarihee wa maa ‘amilat-hu aideehim; afalaa yashkuroon
(36) Subhaanal lazee khalaqal azwaaja kullahaa mimmaa tumbitul ardu wa min anfusihim wa mimmaa laa ya’lamoon
(37) Wa Aayatul lahumul lailu naslakhu minhun nahaara fa-izaa hum muzlimoon
(38) Wash-shamsu tajree limustaqarril lahaa; zaalika taqdeerul ‘Azeezil Aleem
(39) Walqamara qaddarnaahu manaazila hattaa ‘aada kal’ur joonil qadeem
(40) Lash shamsu yambaghee lahaaa an tudrikal qamara walal lailu saabiqun nahaar; wa kullun fee falaki yasbahoon
(41) Wa Aayatul lahum annaa hamalnaa zurriyatahum fil fulkil mashhoon
(42) Wa khalaqnaa lahum mim-mislihee maa yarkaboon
(43) Wa in nashaa nughriqhum falaa sareekha lahum wa laa hum yunqazoon
(44) Illaa rahmatam minnaa wa mataa’an ilaa heen
(45) Wa izaa qeela lahumuttaqoo maa baina aideekum wa maa khalfakum la’allakum turhamoon
(46) Wa maa ta’teehim min aayatim min Aayaati Rabbihim illaa kaanoo ‘anhaa mu’rideen
(47) Wa izaa qeela lahum anfiqoo mimmaa razaqakumul laahu qaalal lazeena kafaroo lillazeena aamanooo anut’imu mal-law yashaaa’ul laahu at’amahooo in antum illaa fee dalaalim mubeen
(48) Wa yaqooloona mataa haazal wa’du in kuntum saadiqeen
(49) Maa yanzuroona illaa saihatanw waahidatan ta’khuzuhum wa hum yakhissimoon
(50) Falaa yastatee’oona taw siyatanw-wa laaa ilaaa ahlihim yarji’oon
(51) Wa nufikha fis-soori faizaa hum minal ajdaasi ilaa Rabbihim yansiloon
(52) Qaaloo yaa wailanaa mam ba’asanaa mim marqadinaa; haaza maa wa’adar Rahmanu wa sadaqal mursaloon
(53) In kaanat illaa saihatanw waahidatan fa-izaa hum jamee’ul ladainaa muhdaroon
(54) Fal-Yawma laa tuzlamu nafsun shai’anw-wa laa tujzawna illaa maa kuntum ta’maloon
(55) Inna Ashaabal jannatil Yawma fee shughulin faakihoon
(56) Hum wa azwaajuhum fee zilaalin ‘alal araaa’iki muttaki’oon
(57) Lahum feehaa faakiha tunw-wa lahum maa yadda’oon
(58) Salaamun qawlam mir Rabbir Raheem
(59) Wamtaazul Yawma ayyuhal mujrimoon
(60) Alam a’had ilaikum yaa Baneee Aadama al-laa ta’budush Shaitaana innahoo lakum ‘aduwwum mubeen
(61) Wa ani’budoonee; haazaa Siraatum Mustaqeem
(62) Wa laqad adalla minkum jibillan kaseeraa; afalam takoonoo ta’qiloon
(63) Haazihee Jahannamul latee kuntum too’adoon
(64) Islawhal Yawma bimaa kuntum takfuroon
(65) Al-Yawma nakhtimu ‘alaaa afwaahihim wa tukallimunaaa aideehim wa tashhadu arjuluhum bimaa kaanoo yaksiboon
(66) Wa law nashaaa’u lata masna ‘alaaa aiyunihim fasta baqus-siraata fa-annaa yubsiroon
(67) Wa law nashaaa’u lamasakhnaahum ‘alaa makaanatihim famas-tataa’oo mudiyyanw-wa laa yarji’oon
(68) Wa man nu ‘ammirhu nunakkishu fil-khalq; afalaa ya’qiloon
(69) Wa maa ‘allamnaahush shi’ra wa maa yambaghee lah; in huwa illaa zikrunw-wa Qur-aanum mubeen
(70) Liyunzira man kaana haiyanw-wa yahiqqal qawlu ‘alal-kaafireen
(71) Awalam yaraw annaa khalaqnaa lahum mimmaa ‘amilat aideenaaa an’aaman fahum lahaa maalikoon
(72) Wa zallalnaahaa lahum faminhaa rakoobuhum wa minhaa ya’kuloon
(73) Wa lahum feehaa manaa fi’u wa mashaarib; afalaa yashkuroon
(74) Wattakhazoo min doonil laahi aalihatal la’allahum yunsaroon
(75) Laa yastatee’oona nasrahum wa hum lahum jundum muhdaroon
(76) Falaa yahzunka qawluhum; innaa na’lamu maa yusirroona wa maa yu’linoon
(77) Awalam yaral insaanu annaa khalaqnaahu min nutfatin fa-izaa huwa khaseemum mubeen
(78) Wa daraba lanaa maslanw-wa nasiya khalqahoo qaala mai-yuhyil’izaama wa hiya rameem
(79) Qul yuh yeehal lazeee ansha ahaaa awwala marrah; wa Huwa bikulli khalqin ‘Aleem
(80) Allazee ja’ala lakum minash shajaril akhdari naaran fa-izaaa antum minhu tooqidoon
(81) Awa laisal lazee khalaqas samaawaati wal arda biqaadirin ‘alaaa ai-yakhluqa mislahum; balaa wa Huwal Khallaaqul ‘Aleem
(82) Innamaa amruhooo izaaa araada shai’an ai-yaqoola lahoo kun fa-yakoon
(83) Fa Subhaanal lazee biyadihee malakootu kulli shai-inw-wa ilaihi turja’oon
Surah Yaseen in English
Bismillah-hirrahma-nirrahim
(1) Ya Sin
(2) By the Quran, full of wisdom,
(3) you are indeed one of the messengers
(4) on a straight path,
(5) with a revelation sent down by the Mighty One, the Merciful,
(6) so that you may warn a people whose fathers were not warned and so they are unaware.
(7) The word has been proved true against the greater part of them: they will not believe.
(8) We have put yokes round their necks right up to their chins, so that they cannot bow their heads
(9) and We have set a barrier before them and a barrier behind them, and We have covered them up so that they cannot see
(10) It makes no difference to them whether you warn them or do not warn them: they will not believe
(11) You can warn only those who would follow the Reminder and fear the Gracious God, unseen. Give them the good news of forgiveness and a noble reward.
(12) We shall surely bring the dead back to life and We record what they send ahead and what they leave behind. We have recorded everything in a clear book.
(13) Recount to them the example of the people to whose town Our messengers came.
(14) When We sent them two messengers, they rejected them both, so We strengthened them with a third. They said, ‘Truly, we have been sent to you [by God] as messengers.’
(15) They replied, ‘You are nothing but mortal men like us and the Merciful God has not revealed anything. You are surely lying.’
(16) They said, ‘Our Lord knows that we have been sent to you.
(17) And our duty is only to convey the message to you clearly.
(18) but they answered, ‘We see an evil omen in you. If you do not stop, we shall certainly stone you, and you will suffer a painful punishment at our hands.
(19) They said, ‘Your evil augury be with you! Is it because you are admonished about the truth? Surely, you are a people transgressing all bounds!’
(20) Then, from the furthest part of the city, a man came running. He said, ‘My people, follow the messengers.
(21) Follow those who ask no recompense of you and are rightly guided.
(22) ‘Why should I not worship Him who has brought me into being, and to whom you shall all be recalled?
(23) Shall I take others besides Him as gods? If the Gracious God should intend me any harm, their intercession will be of no avail, nor can they deliver me.
(24) In that case I should indeed be in manifest error.
(25) Indeed, I have believed in your Lord, so listen to me.
(26) We said to him, ‘Enter paradise,’ and he exclaimed: ‘Would that my people knew
(27) how my Lord has forgiven me and placed me among the honored ones!’
(28) After him We did not send down against his people a host from heaven, nor do We send down such hosts:
(29) it was but one great blast and they fell down lifeless.
(30) Alas for human beings! They ridicule every messenger that comes to them.
(31) Do they not see how many generations We have destroyed before them? Never shall they return to them.
(32) All of them, gathered together, will certainly be brought before Us.
(33) There is a sign for them in the lifeless earth. We revive it and We produce grain from it of which they eat.
(34) We have placed in it gardens of date palms and vines, and caused springs to gush [forth] from it,
(35) so that they may eat its fruit, though it was not their hands that made this. Will they not then be grateful?
(36) Holy is He who created all things in pairs of what the earth grows, and of themselves, and other things which they do not know.
(37) They have a sign in the night: We withdraw from it the [light of] day and they are left in darkness.
(38) The sun, too, follows its determined course laid down for it by the Almighty, the All Knowing.
(39) We have ordained phases for the moon until finally it becomes like an old date-stalk.
(40) The sun cannot overtake the moon, nor can the night outpace the day: each float in [its own] orbit.
(41) Another sign for them is that We carried their offspring in the laden Ark.
(42) We have created for them the like of it in which they ride.
(43) If it were Our will, we could drown them: then there would be no helper [to hear their cry), nor could they be saved.
(44) It is only by Our mercy that they are granted provision for a time.
(45) When they are told, guard yourselves against what is before you and what is behind you, in order that you may be shown mercy, [they turn away].
(46) Indeed, not one of your Lord’s signs comes to them without their turning away from it,
(47) and when they are told, ‘Give to others out of what God has provided for you, those who are bent on denying the truth say to the believers, ‘Why should we feed those whom God could feed if He wanted? You are clearly in error!’
(48) They say, ‘When will this promise be fulfilled, if you are truthful?”
(49) They must be waiting for but one single blast, which will overtake them while they are still disputing.
(50) They will have no time to make a will, nor shall they return to their own people.
(51) The trumpet will be blown and, at once, they will rise up from their graves, and hasten to their Lord.
(52) ‘Woe betide us! they will say, ‘Who has roused us from our sleep? This is what the Lord of Mercy promised: the messengers spoke the truth!
(53) It will be but one blast, and they will all be brought before Us together.
(54) On that Day no soul shall suffer the least injustice. You shall be rewarded only according to your deeds.
(55) The people of Paradise shall be happily occupied on that Day-
(56) they and their wives shall recline on couches in the shade.
(57) They shall have fruits therein, and all that they ask for.
(58) ‘Peace!’ shall be the greeting from the Merciful Lord.
(59) [And God will say], ‘Separate yourselves from the righteous this Day, you criminals.
(60) Did I not enjoin you, sons of Adam, not to worship Satan for he is your sworn enemy
(61) but to worship Me? Surely, that is a straight path.
(62) Yet he led astray a great multitude of you. Why did you not then understand?
(63) This is the Hell you were promised.
(64) Enter it this Day on account of your denial of the truth.’
(65) Today We shall seal up their mouths and their hands will speak to Us, and their feet will bear witness to their misdeeds.
(66) If it had been Our will, we could have put out their eyes. They would have struggled to find the way, but how could they have seen it?
(67) If it had been Our will, we could have paralyzed them where they stood, so that they would not be able to go forward or turn back.
(68) If We extend anyone’s life, we reverse his development. Can they not use their reason?
(69) We have not taught him any poetry nor would it be fitting for him. This is merely a Reminder and a clear Quran
(70) to warn all who are truly alive, and to justify the word [God’s verdict] against the deniers.
(71) Do they not see that, among the things which Our hands have fashioned, we have created for them cattle of which they are the masters,
(72) We have subjected these to them, so that some may be used for riding and some for food
(73) Some for milk to drink and some from which other benefits may be received? Will they not be grateful?
(74) They have set up other gods besides God, hoping to be helped by them,
(75) but they are not able to help them: rather they will be brought before God as their allied host.
(76) Let not their words grieve you. We have knowledge of all that they conceal and all that they reveal.
(77) Does not man see that We created him from a drop. Yet there he is, flagrantly contentious,
(78) producing arguments against Us, and forgetting his own creation. He asks, ‘Who can give life back to bones after they have rotted away?”
(79) Say, He who brought them into being in the first instance will give them life again: He has knowledge of every type of creation:
(80) He who produces fire for you from green trees and from this you kindle fire.’
(81) Is He who created the heavens and earth not able to create others like these people? Of course He is! He is indeed the Supreme Creator, the All Knowing:
(82) when He decrees a thing, He need only say, ‘Be!’ and it is.
(83) So, glory be to Him who has control over all things. It is to Him that you will all be brought back.
सूरह यासीन के फायदे
- कुरआन का दिल
- इस्लामी किताबों में सूरह यासीन को “क़ल्ब-उल-क़ुरआन” कहा गया है। हदीस शरीफ में आया है कि:
- “हर चीज़ का एक दिल होता है, और कुरआन का दिल सूरह यासीन है। जो शख्स इसे पढ़ेगा, अल्लाह उसके गुनाह माफ कर देगा।” (तिर्मिज़ी, हदीस: 2887)
- इस हदीस से पता चलता है कि सूरह यासीन पढ़ने से इंसान के गुनाह माफ होते हैं, और यह अल्लाह की रहमत और माफी का जरिया बनती है।
- मौत के वक्त की आसानी
- हज़रत मुआज़ बिन जाबल (र.अ) से रवायत है कि रसूलुल्लाह (स.अ.व) ने फरमाया:
- “अगर कोई इंसान मौत के करीब हो, तो उसके पास सूरह यासीन पढ़ी जाए, इससे उसकी मौत आसान हो जाती है।”(इब्न हिब्बान, हदीस: 720)
- इस हदीस के मुताबिक, अगर किसी मरते हुए इंसान के पास सूरह यासीन पढ़ी जाए, तो अल्लाह उसकी रूह निकालने में आसानी फरमाता है।
- हज़रत मुआज़ बिन जाबल (र.अ) से रवायत है कि रसूलुल्लाह (स.अ.व) ने फरमाया:
- सारी परेशानियों का हल
- सूरह यासीन को हर मुश्किल हल करने के लिए पढ़ा जा सकता है। इस्लामी किताबों में इसे हर मुश्किल और परेशानी से निजात पाने का एक बेहतरीन तरीका बताया गया है। रसूलुल्लाह (स.अ.व) ने फरमाया:
- “जो सूरह यासीन को अल्लाह की रज़ा के लिए पढ़े, उसकी हर जरूरत पूरी कर दी जाती है।” (इब्न कसीर, तफ़सीर)
- यह हदीस बताती है कि सूरह यासीन पढ़ने वाले इंसान की जरूरतें पूरी होती हैं, और उसकी परेशानियों का हल अल्लाह की तरफ से आता है।
- सूरह यासीन को हर मुश्किल हल करने के लिए पढ़ा जा सकता है। इस्लामी किताबों में इसे हर मुश्किल और परेशानी से निजात पाने का एक बेहतरीन तरीका बताया गया है। रसूलुल्लाह (स.अ.व) ने फरमाया:
- गुनाहों की माफी और सवाब का जरिया
- हज़रत अनस (र.अ) से रवायत है कि रसूलुल्लाह (स.अ.व) ने फरमाया:
- “जो शख्स रात में सूरह यासीन पढ़ता है, उसके सारे गुनाह माफ कर दिए जाते हैं।” (तिर्मिज़ी, हदीस: 2889)
- यह हदीस बताती है कि सूरह यासीन का पढ़ना गुनाहों की माफी का एक बड़ा जरिया है, और इसका सवाब बहुत बड़ा है।
- हज़रत अनस (र.अ) से रवायत है कि रसूलुल्लाह (स.अ.व) ने फरमाया:
- अखिरत की तैयारी
- सूरह यासीन पढ़ने से न केवल दुनियावी फायदें मिलते हैं, बल्कि यह आखिरत के लिए भी फायदेमंद है। रसूलुल्लाह (स.अ.व) ने फरमाया:
- “सूरह यासीन को पढ़ा करो, क्योंकि यह आखिरत के दिन सिफारिश करने वाली बनेगी।” (इब्न माजा, हदीस: 1445)
- इस हदीस से साफ जाहिर होता है कि सूरह यासीन कयामत के दिन इंसान के लिए सिफारिश करने वाली होगी और अल्लाह से रहमत का कारण बनेगी।
- सूरह यासीन पढ़ने से न केवल दुनियावी फायदें मिलते हैं, बल्कि यह आखिरत के लिए भी फायदेमंद है। रसूलुल्लाह (स.अ.व) ने फरमाया:
- दिल का सुकून
- इस्लामी किताबों में यह भी जिक्र मिलता है कि सूरह यासीन को पढ़ने से दिल में सुकून और राहत मिलती है। अगर कोई इंसान किसी परेशानी में हो, तो उसे सूरह यासीन पढ़नी चाहिए, इससे उसका दिल हल्का होगा और उसे रूहानी सुकून महसूस होगा।
- बरकत और रहमत
- सूरह यासीन को नियमित पढ़ने से घर और जिंदगी में बरकत आती है। इसे पढ़ने से अल्लाह की रहमत नाजिल होती है और इंसान की जिंदगी में कई रूहानी और दुनियावी फायदें होते हैं।
सूरह यासीन इस्लाम में एक बेहद अहम और फज़ीलत वाली सूरह है, जो इंसान की जिंदगी और आखिरत दोनों में बेहतरीन फायदे देती है। इसे पढ़ने से अल्लाह की रहमत, माफी और बरकत हासिल होती है, और यह इंसान को अल्लाह के करीब लाने का बड़ा जरिया है। मेरे प्यारे इस्लामी भाई बहनो, आज हमने सूरह यासीन (Surah Yasin) तर्जुमे के साथ सीखा, अगर आपको ये पोस्ट से कुछ सिखने को मिला है, तो आप इससे दूसरों को शेयर कर सवाब के हकदार बने.